Prevent-Content

Thursday, December 19, 2013

यूँ दो टूक बाते

कदम दर कदम बढ़ते जा रहे थे और नज़र इधर से उधर  कभी नीचे तो कभी.… कितना बदला हुआ लगता  शाम का वक़्त यहाँ सड़क के  किनारों पर धुंआ -धुंआ बिखरा, उढ़ता हुआ जा  है.… घरों के  बाहर  सबके चूल्हों पर रोटियां सिक  रही हैं।

वहीं मुँडेरियों पर खेलते बच्चों के हाथों में उनकी माँ रोटियां थमाए उन्हें कपडे से भी ढक रही हैं ठण्ड की ओस से भीगे कपड़ों में वो नन्हे  उसे छोड़ भागते हैं।  इस ठण्ड से बेखबर से  बच्चे इस ठण्ड के मौसम को भी गर्मी  दे रहे हैं। … बगल से ही गुजरती इस सड़क पर रेड-लाईट  होते ही अपना हुनर प्रस्तुत करना  शुरू कर देते हैं। नज़र ठहर सी ही है इस सड़क से गुज़रते हुए।

आगे जाते हुए और उनकी नज़रों से नज़र मिलते होठों के छोरों से निकल गया.…कि बन गया खाना ?
अपनी फुकनी मुंह के आगे से हटाते हुए और मुस्कराहट बिखराकर गीली आँखों को भींचते हुए  कहा , हाँ बना रहे हैं दिहाड़ी पर निकलना है न।  दिन में तो  बच्चा कर खाते है।

यूँ दो टूक बाते कर उस सड़क से गुज़रना होता है और हर दिन में एक डर भी सीने से गुज़रता है। इन नन्हों का यूँ बेफिक्री से सड़क के बीच उतर जाना।  

Sunday, December 1, 2013

कुछ इस तरह मैं बस का सफ़र करती रही-2

कुछ इस तरह मैं
बस का सफ़र करती रही
आज मेरे भी साथ
वो महिला ही बैठी 
जो कल की बखिया
उधेड़ी थी जा रही
आज भी बस में
मुझसे वो टकरा गई
भूल जाऊं
अगर कल का मैं किस्सा
छेड़ा था गर लड़की को उसने
पिट गया सरेआम
वो बेशर्म निहत्ता
क्या कर गुज़रते
लोग उसके साथ
गर उतर ही ना जाता
बस से वो लड़का
अब तो बस में
रोज़ कि ही ये बात है
हर एक की नज़र में
लड़की न जाने क्यों शिकार है
बिन छुए भी करते हैं
लड़की से छेड़छाड़
वो नज़रे उठाकर
देख ले जो एक बार
डर ही जाता है
दुपट्टा भी हया का
बेहयाई इस क़दर
वो आँख से उतारते है 
लुट-सी जाती है
पल में आबरू
नग्न मानसिकता के
कुछ चढ़ते है रोगी
शक्ल से होते कभी हमउम्र,
कभी अंकल, और कभी बच्चे
मगर नियत से होते है
वो शारीर के भोगी
भीड़ की ओटक लिए
करते  हैं हरकत छीछोरी
चुप- सी खड़ी अपने वो
सम्मान को सम्भालती
कर ही देते  हैं उस माँ को भी
ये कमबख्त शर्मसार-सा।
कल सुकून मन को
मेरे भी आ गया
भूत कल छेड़ने का
जो उसका छू हो गया
उसकी बेहयाई के मुह पर
लड़की ने मारा तमाचा
अम्मा भी याद
आ गई होगी वही पर

किरण

Saturday, November 30, 2013

मैं आज बस का सफ़र कुछ इस तरह करती रही

मैं आज बस का सफ़र
कुछ इस तरह करती रही
भीड़ थी  बस में बहुत,
धक्कों से, एक- एक कर कदम को,
मैं सतह पर रखती रही
चढ़ी थी गेट के आगे से मैं,
तो ड्राईवर की आँख की किरकिरी बनी
 कहना चाहा था बहुत उसने मगर,
भीड़ के चलते न कहते बनी
पा ली थी क़दमों ने मेरे 
बस की सतह पर जगह अपनी,
नज़रों को फ़ुरसत से को बाहर करती
अब भीड़ से बेखबर-सी मैं बनी।
दो- चार स्टेंड के बाद ही,
भीड़ का बवंडर चढ़ा
हाय तौबा न जाने ये कैसी मची
कुछ घुट रहे, कुछ लटक रहे
लोग सामान की लग रहे थे पोटली,
मिलने और बिछुड़ने के बीच में,
एक रोज़ की थी ये  गतिविधि
जिसमें थोड़ा प्यार, थी थोड़ी नफरत भी ,
ख़ामख्वाह झगड़ा था, जलन थी,
 कुढ़न थी, सहारे थे और ठहाके थे,
कुछ भीड़ में खुद को फिट कर रहे थे
कुछ बस में इसी का फायदा भी उठा रहे थे
पीछे से आती आवाज़ों ने
समेट लिया था सबका ध्यान
लड़की ने पीटा था
लड़के को एक पल में
लड़के की माफ़ी पर दो-चार ने किये
किए अपने साफ हाथ भी
अगले स्टेंड लड़का पीटते हुए निकला
कुछ चुभती-घूरती नज़रे,
कुछ जाने-पहचाने चेहरे थे,
कुछ अनजाने-से थे,
बस में ये टॉपिक रोज का था
आज का मुद्दा वो लड़की थी
हर किसी की जुबां पर
बखिया उधेड़ी थी जा रही
लड़की शर्म से थी रो पड़ी
अब अंकल ने भी अपनी सीट उसे दी
चंद ही लम्हों के सफ़र में 
क्या हरकत कर गुज़रते हैं
वो साथ बैठी महिला थी दोहरा रही 



किरण

Saturday, November 23, 2013

अहसास










ऐ हवा तू मुझे छुआ ना कर
तेरी छुअन में मुझे उसकी आहट लगती है।
उसका चेहरा तक मैने नहीं देखा
फिर क्यूँ तू उसका अहसास देती है।


किरण
 

तुम

दीवाना बनाते हो आंखों से तुम
पागल करते हो अपनी बातों से तुम
आख़िर मेरे क्या लगते हो तुम
जितनी दूर जाती हूँ तुमसे
उतने ही पास आते हो तुम

कहना क्या चाहते हो तुम
समझाओ मुझे अपना हर इशारा
कुछ महसूस कराना चाहते हो मुझे
लेकिन कहने से पहले ही घबराते हो तुम
शायद, अपने ही किसी अहसास से डर जाते हो तुम।



किरण

Sunday, November 17, 2013

राहुल आएगा आज बस्ती में


राहुल गांधी आया रे
वादा पुराना लाया रे
डंका बजा है बस्ती में
आया राहुल बस्ती में।

दो दिन से यहाँ हल्ला है
भारी राहुल का पल्ला है 
आज ग्रामीण सेवा मद्दी  है
हुयी परेशां पब्लिक है।

सड़क सफाई वाह जी वाह
वर्कर की धुलाई वाह जी वाह
सालों रहे जो सोये थे
आज काम पर आये हैं।

डंका सुन राहुल गांधी का
समां शांति का बंधा हुआ
हर कौने में पुलिस खड़ी
नज़र गढ़ाए पब्लिक पर।  

पब्लिक मगर सब जानती है
देख पुलिस हर कौने पर 
उनकी टोका-टाकी पर
उन्हें कोसती, फिर हस्ती हुयी गुज़रती है।

घर के  बाहर पुलिस देखकर
मेरा मन पुलकित-सा  होता
रहते जो ये  ऐसे ही खड़े  
न कोई चोरी होती, न कोई सम्मान को रोता। 


किरण

आज सुबह घर से बाहर निकलते ही मेरे सामने कुछ नज़ारा  बदला-सा ही था।  राहुल गांधी के आने से पहले सुबह कुछ यूँ बदली होगी शायद पब्लिक ने भी नहीं सोचा था।  








Friday, September 6, 2013

litsener at work


मायाराम जी अपनी चाय का ठीया जामाये 12-13 सालों से इसी कौने में गुज़र-बसर कर रहे हैं। साथ में सब्जी वाले का ठीया है। इंटो और टूटी-फूटी सिल्लियों पर छोटे सिलिन्डर को टिकाए उसके चारों तरफ कनिस्तर की टीन से ओट किये उसपर चाय खोला रहे हैं। साथ में ही दो लोगों के बैठने का ठीया भी जमा दिया है। कस्टमर को चाय थमाते हुये अपनी मुस्कुराहट में अपना बकाया कर्ज़ा भी मांग रहे हैं।

कस्टमर उन्हें हाथ दिखाते हुये चाय लेकर चला गया। मायारामजी ने भी उसकी बात समझ कर अपना मोबाईल थाम उसके "कीपेड” की टूं-टूं-टू-उउउउउउ से कुछ देर जूझने के बाद नतीजे पर आए यानि अपना पसंदीदा गाना तेज चिल्लाकर मोबाईल को वहीं साईड में उल्टा रख दिया। दो कप चाय और चढ़ा दी।

ये ठीया वाक़ई में सालों पुराना लगता है। इसके छप्पर में कई पुराने जोड़ और नये जोड़ साफ देखे जा सकते हैं। नीचे की त्रिपाल गली हुइ-सी है उसके उपर की त्रिपाल भी ज़्यादा नई नहीं है। कदमों तले आती इंटे घिसी हुई दबी हुई महक रही है। जिसे बयां नहीं किया जा सकता। इस ठीये के चारो तरफ कई ठेले वाले भी अपनी-अपनी दुकानदारी में मशगूल हैं और मायाराम जी, अपने मोबाईल पर पाहाड़ी गाना लगाकर अपनी नज़रों को दूर-और-दूर ले जाते और खौलती चाय की सरररररर सुनकर वापिस अपनी नज़र को सिमित कर उसे खौलाते....आसपास बहुत शोर है। सड़क से गुज़रती-चिखती, हॉर्न मारती गाड़ियां, आलु वाला मोबाईल पर गाने चलाकर खुद ही उसे दोहराता। मायाराम जी भी चाय के खौलते पानी में चीनी-पत्ती डालते हुये अपने पहाड़ी गाने दोहराते हुए बोल पड़े...... “ये मोबाईल भी बढ़िया चीज़ है जब कुछ और सुनने का मन ना हो तो इसे चला लो। मुझे गाने बहुत पसन्द है। मै यहां बैठकर अपने में मस्त रहता हूँ कहते हुए वो मुस्कुरा दिये।"

मायारामजी से जब पूछा- यहाँ इतने शोर में ऐसी कौन-सी आवाज़ है जो आपके रुटीन में फर्क डालती है या आपसे जुड़ी है?

वो एक बार फिर मुस्कुराए और ठीये में पड़ा कुड़ा-करकट उठाकर इस पिछे पार्क में फेकते हुये खामोश बैठ गये। मोबाईल का गाना चेन्ज किया पर कुचह बोले नहीं। शायद वो सावाल सामाजह नहीं पाये या जवाब नहीं कोई। उन्होंने खौलती चाय दो कप में डाली। एक कप खुद के लिये भी डाल ली। चाय की चुस्कियां भरते हुए युहीं उनसे फिर एक और सवाल मेरे दोस्त ने पुछ लिया- कितनी चाय हो जाती है दिनभर में आपकी? तो वो मोबाईल रखते हुये- "सात-आठ चाय हो जाती है मेरी भी। पूरा दिन खाली बैठे, नींद तो यहां आएगी नहीं यहां तो आवाज़ें ही इतनी रहती है दोपहर हप या सांझ। सड़क का चौराहा है ना तो आवाज़े कभी शांत नहीं होती, हर टाईम कान खाती हैं इसलिए मै अपने मोबाईल में गाने चलाकर उन आवाज़ों को कम करता हूँ या चाय कि दो घूंट के साथ कस्टमर से बतिया लेता हूँ।"

इतना कह वह चुप हुये और फिर बोले....... “वो सामने ढ़ाबे पर नान की रोटी बनाने की आवाज़ आ रही है ना"। वो खुद ही मुस्कुराए और बोले- “मैने भी बहुत बनाई है। हाथ दर्द हो जाते थे। दिल्ली में बहुत जगह काम किया है मैने। नान बनाना भी कोइ ऐसे ही नहीं है। एक बार मै होटल में नान की रोटी बना रहा था तो मेरा मालिक आया और मुझे ज़ोर से चांटा मारा। मै भुजक्का-सा रह गया। समझ नहीं आया क्या हुआ उन्हें। अपने बाकि साथी की तरफ देखा और लज्जित सा खड़ा मालिक को देखा। उन्होंने पूछा- “ समझ आया क्यों मारा? मैने ना में गर्दन हिलाई। मालिक ने हाध धोए और तुरन्त एक रोटी बनाकर दिखाई और पूछा- अब समझ आया? मैने कहा- नहीं। उसने फिर एक रोटी बनाकर दिखाई। मै तब भी समझ नहीं पा रहा था कि हो क्या रहा है? तब मालिक ने गुस्से में कहा- ये होटल है तेरा घर नहीं। रोटी बना रहा है तो पता भी चलना चाहिये तेरे हाथों कि थाप से। इस तरह उसने एक और रोटी बना डाली। मै अकसर उस आवाज़ पर रुक जाता हूँ। जब उस होटल में वो हाथों की थाप मेरे कानों में पड़ती है तब पता चल जाता है लन्च तैयार हो रहा है। वो ये कहते-कहते चाय के प्याले धोने लगे और उस ढाबे वाले की तरफ निहारते रहे।

चाय की चुस्कियों के साथ मायारामजी मेरे पहले सवाल का जवाब देते चले गये और हम उनकी यादों के उस लम्हें का हिस्सा बन गये जिसे वो अकसर अकेले ही जिया करते होंगे.....


किरण

Wednesday, July 10, 2013

अब रोज़ सुबह ऐसी होती है


अब रोज़ सुबह मेरी, कुछ इस तरह होती है,
मेरे उठने से पहले ही, मां आवाज़ मुझे लगाती है।
मै अलसाई आंखो से, उन्हें टोक दिया करती हूँ,
कहाँ जाना अब करके तैयारी,
घर में ही तो सारा दिन बिताती हूँ।

माँ झुंझला कर कहती बेटा,
लड़की जात न सोती इतना, पराए घर जाना है तुझको,
बहुत हुआ नौकरी का चक्कर, ये कभी न भाए मुझको।
देर से सोना, देर से उठना ये क्या रीत चला ली है,
तेरा जल्दी उठकर पूजा करना, कहां ये सीख भुला दी है।

खींच के चादर अपने शरीर पर, बस 5 मिनिट, बस 5 मिनिट,
इतना कह मैं फिर आंखों पर, नींद की चादर ढकती हूँ।
माँ फिर झुंझलाकर कहती मुझसे,
वही सुबह है वही शाम, बस दुनिया तेरी बदली है।

मैं उनिदि पलकों से माँ को घूरे रहती हूँ,
मेरा गुस्सा जान मेरी माँ, मिठी-सी मुस्कान दिए माँ,
मेरा हाथ थामे, मिठी चाय का कप दिए,
नौ बजे हैं, ये सुबह नहीं.....होले से कहती है। 

हम्महम्म  करके मैं चाय पकड़ती, अपना धीर बंधाती हूँ,
सुबह-सुबह बरसती ममता, अपनी माँ की मैं पाती हूँ।
उसकी बाहों मे सिर रख बच्ची सी बन जाती हूँ,
स्पर्श प्रेम का पाकर माँ का, फिर उसी पल सो जाती हूँ।

kiran

Monday, July 8, 2013

ख़्वाहिश



ख़्वाहिशें हैं दिल में कुछ बनने की
तमन्ना है ज़िन्दगी में कुछ पाने की।
शायद ये ख़्वाहिशें मेरी पूरी हो
क्योंकि सोच के दायरे से बनी है
ये एक ख़ूबसूरत-सी ख़्वाहिश।
इच्छा है तो सिर्फ सफलता की
जो तुफान की लहरों की तरह
उम्मीद बनके कभी न कभी
मेरी ज़िन्दगी में सच होने आएगी
क्योंकि है ये एक ख़ूबसूरत-सी ख़्वाहिश।

मैं वो नहीं




'उफ' तेरी ये मदहोश निगाहें
क्यों मेरा साथ कभी छोड़ती नहीं।
जब भी देखा है पलके उठाकर
अपने सिवा कोई नज़र आता नहीं।

न जाने ये आंखें क्या कहना चाहती है
'हाँ' खामोश तो कभी ये रहती नहीं।
तेरी आंखे मुझे एक ख़्वाब दिखाना चाहती है
मगर जुबाँ तेरा साथ देती नहीं।

खिंची चली आती हूँ मैं तेरी ओर
पर रोक लेता है मेरा ये दिल।
तूने किया नहीं इकरार कभी
इसलिए बस, दिल बार-बार यही दोहराता है... 
मैं वो नहीं,मैं वो नहीं।

Thursday, June 6, 2013

सच कहें तो बढ़े हैरान हैं हम।



सच कहें तो बढ़े हैरान हैं हम
अभी अपने ही रिश्तों से।
जिसपर भी करते हैं भरोसा
ना जाने क्यों वही देते हैं धोखा

कभी डरते थे दुनिया से हम
मगर आज खुद से ही डरते हैं
क्यों होता है ऐसा मेरे साथ
क्या मैं ना करूँ किसी से बात
सच कहें तो बढ़े हैरान हैं हम।

रिश्तों में ढला मेरा बचपन
आज रिश्तों से डर लगता है
मदद करने से पहले हर कोई
बीते वक़्त को खोजता है
सच कहें तो बढ़े हैरान हैं हम।

बढा ही अजीब सिस्टम लगता है मुझे
लोगों का लोगों से जुड़ने का,
उनके अनुभव से ज्यादा
उनके वज़ूद को सोचते हैं
सच कहें तो बढ़े हैरान हैं हम।

Tuesday, May 28, 2013

मुझसे ये ज़िन्दगी


-->
न जाने क्या चाहती है
मुझसे ये ज़िन्दगी।

जब भी कोई कदम बढ़ाया है
ज़हन में एक सवाल छोड़कर
उसका जवाब चाहती है
मुझसे ये ज़िन्दगी।

मेरी हर चाहत को तोड़ा है इसने
मेरा एक हमदर्द बनकर
उसके बदले मेरे आंसू चाहती है
मुझसे ये ज़िन्दगी।

जब भी मैं सोचती हूँ इसके बारे में
तो दिल से यही दुआ निकली है
मिल जाए इसे जो ये चाहती है
मुझसे ये ज़िन्दगी।