उम्र ही क्या थी मेरी
जब पहली बार पल्लू में माँ के
मैं, छुप छुप जाया करती थी।
लेकर दुपट्टा उनका
उनकी तरह उन्हें दोहराती थी।
मुझे इतराते देख मेरी माँ
भर अपनी बांहो में मुझको वो ज़ोर-ज़ोर से हंसती और चहकती थी।
लिए दुपट्टा मैं इठलाती
सखियों संग घर-घर खेला करती थी।
कभी अम्मा, कभी चाची, कभी भाभी,
कभी मैं उनकी मम्मी हो जाया करती थी।
छीन दुपट्टा अपनी माँ से
मैं दूर-दूर भागा करती थी
बड़ा मज़ा था इस खेल में
मैं कुछ से कुछ हो जाया करती थी।
साल गुजरते उम्र के बढ़ते
अब दौर दुपट्टे का भी आया।
अब माँ खुद से खरीद कर
मेरे सीने रख मुझे सवांरती है।
कहती बेटा लड़की तू है
ढकी-ढकी ही भाती है।
सिर उठाकर, कंधे झुकाकर
वो मुझको चलना सिखाती है।
खुद को आईने में चलता देख
मैं माँ की बात समझी थी।
कई तरह ढंग दुपट्टे को संग अपनाकर
अब खुद को सवांरा करती हूँ।
हाय, एक दिन टीवी पर देख खबर
मेरी माँ भी हुयी रुआंसी
रंग दुपट्टे का कोई भी
उस लड़की को न सवांर पायेगा।
देख चेहरा आईने में अपना
वो पल-पल तेज़ाब को सहती होगी।
क्या वो अब उस दुपट्टे को ले
खुद को सवारती होगी?
काश उन तेज़ाब डालने वालो ने भी
माँ की ममता पायी होती।
सीख़ कोई उन कमज़ोरों को
उनकी माँ ने भी सिखाई होती।