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Friday, September 6, 2013

litsener at work


मायाराम जी अपनी चाय का ठीया जामाये 12-13 सालों से इसी कौने में गुज़र-बसर कर रहे हैं। साथ में सब्जी वाले का ठीया है। इंटो और टूटी-फूटी सिल्लियों पर छोटे सिलिन्डर को टिकाए उसके चारों तरफ कनिस्तर की टीन से ओट किये उसपर चाय खोला रहे हैं। साथ में ही दो लोगों के बैठने का ठीया भी जमा दिया है। कस्टमर को चाय थमाते हुये अपनी मुस्कुराहट में अपना बकाया कर्ज़ा भी मांग रहे हैं।

कस्टमर उन्हें हाथ दिखाते हुये चाय लेकर चला गया। मायारामजी ने भी उसकी बात समझ कर अपना मोबाईल थाम उसके "कीपेड” की टूं-टूं-टू-उउउउउउ से कुछ देर जूझने के बाद नतीजे पर आए यानि अपना पसंदीदा गाना तेज चिल्लाकर मोबाईल को वहीं साईड में उल्टा रख दिया। दो कप चाय और चढ़ा दी।

ये ठीया वाक़ई में सालों पुराना लगता है। इसके छप्पर में कई पुराने जोड़ और नये जोड़ साफ देखे जा सकते हैं। नीचे की त्रिपाल गली हुइ-सी है उसके उपर की त्रिपाल भी ज़्यादा नई नहीं है। कदमों तले आती इंटे घिसी हुई दबी हुई महक रही है। जिसे बयां नहीं किया जा सकता। इस ठीये के चारो तरफ कई ठेले वाले भी अपनी-अपनी दुकानदारी में मशगूल हैं और मायाराम जी, अपने मोबाईल पर पाहाड़ी गाना लगाकर अपनी नज़रों को दूर-और-दूर ले जाते और खौलती चाय की सरररररर सुनकर वापिस अपनी नज़र को सिमित कर उसे खौलाते....आसपास बहुत शोर है। सड़क से गुज़रती-चिखती, हॉर्न मारती गाड़ियां, आलु वाला मोबाईल पर गाने चलाकर खुद ही उसे दोहराता। मायाराम जी भी चाय के खौलते पानी में चीनी-पत्ती डालते हुये अपने पहाड़ी गाने दोहराते हुए बोल पड़े...... “ये मोबाईल भी बढ़िया चीज़ है जब कुछ और सुनने का मन ना हो तो इसे चला लो। मुझे गाने बहुत पसन्द है। मै यहां बैठकर अपने में मस्त रहता हूँ कहते हुए वो मुस्कुरा दिये।"

मायारामजी से जब पूछा- यहाँ इतने शोर में ऐसी कौन-सी आवाज़ है जो आपके रुटीन में फर्क डालती है या आपसे जुड़ी है?

वो एक बार फिर मुस्कुराए और ठीये में पड़ा कुड़ा-करकट उठाकर इस पिछे पार्क में फेकते हुये खामोश बैठ गये। मोबाईल का गाना चेन्ज किया पर कुचह बोले नहीं। शायद वो सावाल सामाजह नहीं पाये या जवाब नहीं कोई। उन्होंने खौलती चाय दो कप में डाली। एक कप खुद के लिये भी डाल ली। चाय की चुस्कियां भरते हुए युहीं उनसे फिर एक और सवाल मेरे दोस्त ने पुछ लिया- कितनी चाय हो जाती है दिनभर में आपकी? तो वो मोबाईल रखते हुये- "सात-आठ चाय हो जाती है मेरी भी। पूरा दिन खाली बैठे, नींद तो यहां आएगी नहीं यहां तो आवाज़ें ही इतनी रहती है दोपहर हप या सांझ। सड़क का चौराहा है ना तो आवाज़े कभी शांत नहीं होती, हर टाईम कान खाती हैं इसलिए मै अपने मोबाईल में गाने चलाकर उन आवाज़ों को कम करता हूँ या चाय कि दो घूंट के साथ कस्टमर से बतिया लेता हूँ।"

इतना कह वह चुप हुये और फिर बोले....... “वो सामने ढ़ाबे पर नान की रोटी बनाने की आवाज़ आ रही है ना"। वो खुद ही मुस्कुराए और बोले- “मैने भी बहुत बनाई है। हाथ दर्द हो जाते थे। दिल्ली में बहुत जगह काम किया है मैने। नान बनाना भी कोइ ऐसे ही नहीं है। एक बार मै होटल में नान की रोटी बना रहा था तो मेरा मालिक आया और मुझे ज़ोर से चांटा मारा। मै भुजक्का-सा रह गया। समझ नहीं आया क्या हुआ उन्हें। अपने बाकि साथी की तरफ देखा और लज्जित सा खड़ा मालिक को देखा। उन्होंने पूछा- “ समझ आया क्यों मारा? मैने ना में गर्दन हिलाई। मालिक ने हाध धोए और तुरन्त एक रोटी बनाकर दिखाई और पूछा- अब समझ आया? मैने कहा- नहीं। उसने फिर एक रोटी बनाकर दिखाई। मै तब भी समझ नहीं पा रहा था कि हो क्या रहा है? तब मालिक ने गुस्से में कहा- ये होटल है तेरा घर नहीं। रोटी बना रहा है तो पता भी चलना चाहिये तेरे हाथों कि थाप से। इस तरह उसने एक और रोटी बना डाली। मै अकसर उस आवाज़ पर रुक जाता हूँ। जब उस होटल में वो हाथों की थाप मेरे कानों में पड़ती है तब पता चल जाता है लन्च तैयार हो रहा है। वो ये कहते-कहते चाय के प्याले धोने लगे और उस ढाबे वाले की तरफ निहारते रहे।

चाय की चुस्कियों के साथ मायारामजी मेरे पहले सवाल का जवाब देते चले गये और हम उनकी यादों के उस लम्हें का हिस्सा बन गये जिसे वो अकसर अकेले ही जिया करते होंगे.....


किरण