कदम दर कदम बढ़ते जा रहे थे और नज़र इधर से उधर कभी नीचे तो कभी.… कितना बदला हुआ लगता शाम का वक़्त यहाँ सड़क के किनारों पर धुंआ -धुंआ बिखरा, उढ़ता हुआ .… घरों के बाहर सबके चूल्हों पर रोटियां सिक रही हैं।
वहीं मुँडेरियों पर खेलते बच्चों के हाथों में उनकी माँ रोटियां थमाए उन्हें कपडे से भी ढक रही हैं ठण्ड की ओस से भीगे कपड़ों में वो नन्हे उसे छोड़ भागते हैं। इस ठण्ड से बेखबर से बच्चे इस ठण्ड के मौसम को भी गर्मी दे रहे हैं। …
बगल से ही गुजरती इस सड़क पर रेड-लाईट होते ही अपना हुनर प्रस्तुत करना शुरू कर देते हैं। नज़र ठहर सी ही है इस सड़क से गुज़रते हुए।
आगे जाते हुए और उनकी नज़रों से नज़र मिलते होठों के छोरों से निकल गया.…कि बन गया खाना ?
अपनी फुकनी मुंह के आगे से हटाते हुए और मुस्कराहट बिखराकर गीली आँखों को भींचते हुए कहा , हाँ बना रहे हैं दिहाड़ी पर निकलना है न। दिन में तो बच्चा कर खाते है। यूँ दो टूक बाते कर उस सड़क से गुज़रना होता है और हर दिन में एक डर भी सीने से गुज़रता है। इन नन्हों का यूँ बेफिक्री से सड़क के बीच उतर जाना।
वहीं मुँडेरियों पर खेलते बच्चों के हाथों में उनकी माँ रोटियां थमाए उन्हें कपडे से भी ढक रही हैं ठण्ड की ओस से भीगे कपड़ों में वो नन्हे उसे छोड़ भागते हैं। इस ठण्ड से बेखबर से बच्चे इस ठण्ड के मौसम को भी गर्मी दे रहे हैं। …
बगल से ही गुजरती इस सड़क पर रेड-लाईट होते ही अपना हुनर प्रस्तुत करना शुरू कर देते हैं। नज़र ठहर सी ही है इस सड़क से गुज़रते हुए।
आगे जाते हुए और उनकी नज़रों से नज़र मिलते होठों के छोरों से निकल गया.…कि बन गया खाना ?
अपनी फुकनी मुंह के आगे से हटाते हुए और मुस्कराहट बिखराकर गीली आँखों को भींचते हुए कहा , हाँ बना रहे हैं दिहाड़ी पर निकलना है न। दिन में तो बच्चा कर खाते है। यूँ दो टूक बाते कर उस सड़क से गुज़रना होता है और हर दिन में एक डर भी सीने से गुज़रता है। इन नन्हों का यूँ बेफिक्री से सड़क के बीच उतर जाना।
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