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Wednesday, March 5, 2014

मेरी दिल्ली

चटाक… चटाक… सबकी नज़रे एक साथ घूमीं शायद। बस स्टेंड पर रेड लाइट के आगे से पीटते हुए वह औरत उस बच्ची को घसीटती हुई थप्पड़ लगाये जा रही थी।  सबने देखा तो मगर कुछ कहा नहीं।  मैंने भी कुछ नहीं कहा।  हाँ उन तमाचों को महसूस तो किया मगर अपने आप को अपने दुपट्टे में ही कसे रखा।  मैं क्या कहूं वह उसकी माँ है।  जो चाहे कर सकती हैं मैं कौन होती हूँ उन्हें टोक देने वाली।  इस सड़क से गुज़रते मैं तो रोज़ ही इन्हें देखती हूँ। फिर इस बच्ची का खेल भी तो सब देखते ही है।  माँ ढ़ोल पर दो डंडी घसीटती है. . . उससे निकलने वाली धुन पर ये बच्ची अपना करतब दिखती है।  अपने लचीले बदन को बड़ी आसानी से घुमाकर जाने कितने ही तरह के व्यायाम इस रेड लाइट पर कर गुज़रती है।  रामदेव बाबा भी चाहे तो इससे कुछ सीख ले।  मगर फिर भी ये हुनर दो कौड़ी का है। लोग कहां खुश होकर देते है।  वह तो ज़िल्लत भरी भीख़ थमा बैठते है या खड़े-खड़े हुड़की सी लेते रहते है। अपने घर के बच्चों में ममता उडेलते है तो इनपर क्यों झिड़कते हैं।  अपने घर के बच्चों संग तुतलाते हैं और इन संग वो भिड़ जाते हैं।  अपने बच्चों का सुख वह चाहते है और ये नादान माँ संग ही कमाते हैं। बस के न आने तक नजर उसी बच्ची के चेहरे पर थी।  जो माँ के तमाचों से लाल आसुंओ में भीगा था।  न चाहते हुए भी न जाने क्यों उसकी माँ से बात करने की हिम्मत कर ही ली।  दो टूक में अपनी बात कही,  "आज अगर मन नहीं उसका तो रहने दिया होता हाथ क्यों उठा दिया?"  वह मेरे दुपट्टे में बंद चेहरे को देखना चाहती थी पर मैंने दुपट्टा नहीं हटाया। वह अपने गोद के बच्चे को संभालती हुयी मेरी आँखों को घूरती रही। मैंने उस बच्ची को एक बार फिर देखा जो अपनी माँ से दूर जाकर खड़ी थी।  पता नहीं इन्हें कोई देखता क्यों नहीं, या ये लोग ही नहीं चाहते ? सड़को पर ही इनका बसेरा क्यों ? रेड लाइट पर कड़वे बोल सुनकर लोगों की नाराज़गी देखकर इनकी मानसिकता पर क्या असर पड़ता होगा? वह अपना अगला दिन कैसे सोचता होगा सड़क पर फिर से उतरने के लिए।  कई सवाल लेकर मैं अपनी बस का इंतजार करती रही और भीड़ से लदी बस में चढ़ी और अपने क़दमों को जगह देने और खुद के लिए खड़े रह पाने में जुट गई।