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Sunday, December 1, 2013

कुछ इस तरह मैं बस का सफ़र करती रही-2

कुछ इस तरह मैं
बस का सफ़र करती रही
आज मेरे भी साथ
वो महिला ही बैठी 
जो कल की बखिया
उधेड़ी थी जा रही
आज भी बस में
मुझसे वो टकरा गई
भूल जाऊं
अगर कल का मैं किस्सा
छेड़ा था गर लड़की को उसने
पिट गया सरेआम
वो बेशर्म निहत्ता
क्या कर गुज़रते
लोग उसके साथ
गर उतर ही ना जाता
बस से वो लड़का
अब तो बस में
रोज़ कि ही ये बात है
हर एक की नज़र में
लड़की न जाने क्यों शिकार है
बिन छुए भी करते हैं
लड़की से छेड़छाड़
वो नज़रे उठाकर
देख ले जो एक बार
डर ही जाता है
दुपट्टा भी हया का
बेहयाई इस क़दर
वो आँख से उतारते है 
लुट-सी जाती है
पल में आबरू
नग्न मानसिकता के
कुछ चढ़ते है रोगी
शक्ल से होते कभी हमउम्र,
कभी अंकल, और कभी बच्चे
मगर नियत से होते है
वो शारीर के भोगी
भीड़ की ओटक लिए
करते  हैं हरकत छीछोरी
चुप- सी खड़ी अपने वो
सम्मान को सम्भालती
कर ही देते  हैं उस माँ को भी
ये कमबख्त शर्मसार-सा।
कल सुकून मन को
मेरे भी आ गया
भूत कल छेड़ने का
जो उसका छू हो गया
उसकी बेहयाई के मुह पर
लड़की ने मारा तमाचा
अम्मा भी याद
आ गई होगी वही पर

किरण