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Thursday, February 13, 2014

"ऐसे थे मेरे पापा "

जब भी अकेली हो जाती हूँ
मैं उनका स्पर्श पा लेती हूँ।
कुछ और न बात हो कभी तो,
मैं उनकी यादें दोहराती हूँ।

मेरे नन्हें हाथों को थामें चलना सिखाते ,
कभी गिरने से बचाते,
तो कभी गोद में लेकर
रिश्तों से परिचय कराते थे मेरे पापा।

कभी मेरे हमसफ़र बनकर
वो मेरे साथ मुस्कुराते।
कभी हमराज़ बनकर
मेरे राज़ छुपाते थे, मेरे पापा।

जब मां की डांट-डपट से भी
मैं कोई काम न करती
तब अपने स्नेह और दुलार से
काम के लिए मना लेते थे, मेरे पापा।

खेल में पढ़ने की भूल को समझ
नाराज़ होते थे जब कभी
तो खुद पढ़ने बैठ कर
मुझे पाठ याद दिलाते थे, मेरे पापा।

दिन भर की थकान के बावजूद
वो मेरे हमसाथी बनकर
मेरी उलझनों को सुलझाते
मेरे जवाबों से मुस्कुराते थे, मेरे पापा।

स्कूल के कार्यक्रम पर
जो माँ ने मुझे पहना दी थी साड़ी
तो अपने आंसू छुपाकर
अपनी चिंता को जताते थे, मेरे पापा।

देर रात अकेले बैठ कर
जब लिखा करते थे डायरी
तब मेरी मेरे पूछने की हठ पर
मुझे अपने आप से रु-बी-रु करते थे, मेरे पापा।

यूँ तो मैंने कभी ज्य़ादा चाहा ही नहीं
पर जब कभी ज़ेब से ज्य़ादा मांगा
तब तब उन्हें कोशिश करते देखा
या कभी देरी पर शर्मिन्दा होते थे, मेरे पापा।

होते जो आज तो
मैं उनकी फिक्र का हिस्सा होती
मुझे उस फिक्र से परे,मुस्कराहट ही दे रहे होते
जैसे बचपन में देते थे,  मेरे पापा।