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Sunday, May 17, 2015

आरुषि और मै



कल सुबह की ही तो बात है। रोज़ की तरह ऑंखें मलती घर में आकर अपनी मुस्कान बिखेरती हुई कहती है। उठ गई दीदी तुम। 
कल भी मेरी आँख तो खुल गई थी लेकिन कुछ देर बिस्तर पर सुस्त पड़े रहना भी अच्छा लगता है। आरुषि कमरे में आई और मेरा हाथ पकड़ कर कहती-

आरुषि- दीदी उठो न। 
मैने करवट लेते हुए कहा- अरे आज तो जल्दी उठ गई आरुषि। 
वो मुस्कुराती हुई जल्दी से बोली- हमारे स्कूल की न छुट्टी पड़ गई। आज तो छुट्टी है।
मैं उठ बैठी और पानी पीकर बोली- अच्छा। अब तो दादी के घर जायेगी आरुषि।है न।
आरुषि- अरे नहीं दीदी। आपको तो पता भी नहीं। हमने तो नया घर ले लिया। आज मम्मी सामान ले जायेगी। मम्मी की भी छुट्टी है और पापा की भी छुट्टी है। बहुत दूर जा रे हैं हम। इस गली में।
वह कहती हुई कभी मेरे भाई को उठाती कभी मेरे मम्मी से बात करने लग जाती।

आज सुबह से आरुषि घर नही आई और न ही सुबह से कोई आवाज़ सुनी। पूछने पर पता चला कि वह हमारे साथ वाला मकान ख़ाली करके चले गए हैं। दो साल से कितनी ही सुबह आरुषि की सच्ची झूठी कहानियों और कितने ही सवालों से हॉच-पॉच होकर गुज़री है। मम्मी से तो बहस ही करती रही है। आज दिन के 8 घण्टे उसकी किसी भी हरकत को देखे बिना गुज़र गए। सन्डे भी सन्डे जैसा नहीं और सुबह भी सुबह जैसी नहीं। 


मुझे पता ही नहीं चला की घर खाली करने की बात सच्ची थी। लगा रोज़ की इतनी कहानियां वो ख़ुद ही तो रच लेती है बातों ही बातों में। अपनी कहानी में ढ़ेरों चित्र ऐसे बुनती की उनका सही दायरा बनाना मेरे बसका तो नहीं होता था। हर चीज़ दायरे से बाहर होती आज़ाद होती। मम्मी किसी बात के लिए टोकती हैं तो साफ़ साफ़ न कह देती है जिसपर मेरे होठों पर मुस्कान आ जाती है।