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Tuesday, January 7, 2014

Stop Acid Attacks


उम्र ही क्या थी मेरी
जब पहली बार पल्लू में माँ के
मैं, छुप छुप जाया करती थी।
लेकर दुपट्टा उनका 
उनकी तरह उन्हें दोहराती थी।

मुझे इतराते देख मेरी माँ
भर अपनी बांहो में मुझको    वो ज़ोर-ज़ोर से हंसती और चहकती थी।

लिए दुपट्टा मैं  इठलाती
सखियों संग घर-घर खेला करती थी।
कभी अम्मा, कभी चाची, कभी भाभी,
कभी मैं उनकी मम्मी हो जाया करती थी। 

छीन दुपट्टा अपनी माँ से
मैं दूर-दूर भागा करती थी
बड़ा मज़ा था इस खेल में
मैं कुछ से कुछ हो जाया करती थी।

साल गुजरते उम्र के बढ़ते
अब दौर दुपट्टे का भी आया।
अब माँ खुद से खरीद कर
मेरे सीने रख मुझे सवांरती है।

कहती बेटा लड़की तू है
ढकी-ढकी ही भाती है।
सिर  उठाकर, कंधे झुकाकर
वो मुझको चलना सिखाती है।

खुद को आईने में चलता देख
मैं माँ की बात समझी थी।
कई तरह ढंग दुपट्टे को संग अपनाकर
अब खुद को सवांरा करती हूँ।

हाय, एक दिन टीवी पर देख खबर
मेरी माँ भी हुयी रुआंसी
रंग दुपट्टे का कोई भी
उस लड़की को न सवांर पायेगा।

देख चेहरा आईने में अपना
वो पल-पल तेज़ाब को सहती होगी।
क्या वो अब उस दुपट्टे को ले
खुद को सवारती होगी?

काश उन तेज़ाब डालने वालो ने भी
माँ की ममता पायी होती।
सीख़ कोई उन कमज़ोरों को
उनकी माँ ने भी सिखाई होती। 

Monday, January 6, 2014

मैं और मेरा मोहल्ला

सर्द मौसम में बारिश का हो जाना कदमों को घर में ही रोकता है। फिर आज ठण्ड का एहसास भीगा-सा भी है। गली में सब कुछ जैसे बटोरा जा चुका है गली चौड़ी और फैली-सी दिखती है।  आवाजें दबी-दबी रहती है। ऊपर से ये बेरहम बारिश जो सुबह से मुंह खोले बरस रही थी।  हवा में नमी और सड़को पर कीच। ये अंदाज़ था मौसम के चलते। लेकिन जब कानों ने खुद को आज़ाद पाया तो मेरे कदमों ने भी बाहर निकलने की ठान ली।  सर्द मौसम ने हाथों को बग़ल से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं दी।  मैं सड़क पर बेपरवाह-सी उतर आई हूँ।  मैं अक्सर कुछ आवाज़ों तले हमेशा अपने क़दमों को अलग-अलग रास्तों पर  लेती हूँ। मगर बारिश ने सड़क को खली और शांत सा कर दिया है। इसलिए हरेक आवाज़ तेज़ और तीखी-सी होती है।  सो जितनी आज़ादी मेरे कानों ने महसूस की उतनी ही आज़ादी मेरे क़दमों ने बटोर ली।  मेरे क़दम रफ़्तार नहीं पकड़ रहे थे बल्कि शांति से अपना सफ़र तय कर रहे थे। 

यूँ तो ये गलियां, ये सड़के , ये नुक्कड़ मेरे लिए नए नहीं है लेकिन बाकि दिनों में, मैं इनसे एक अजनबी-सा रिश्ता बनाकर चलती हूँ। मेरा बचपन इन आवाज़ों को अपने में सोखता शामिल  करता हुआ आगे बढ़ा है कि अब ये आवाज़ें आती भी हैं तो मुझसे टकराकर वापिस चली जाती है।  मुझे पता भी नहीं चलता कि मैंने कुछ अनसुना भी किया। 

अपने बचपन से अबतक आवाज़ों को बदलते सुना है। दुकाने ज्य़ादा हो गई हैं तो वहाँ गुट भी बन जाते हैं जो कि अपने ठहाकों की गूंज से सबके ध्यान को खींच लेते हैं कुछ सड़क से गुजरते दुकान वाले से दुआ-सलाम लेते गुजरते हुए उसे अपने रूटीन में शामिल कर चुके है।  बाइक के हॉर्न अब ज्यादा सुनने को मिलते हैं।  कभी तो डरा ही देती हैं तो कभी इतने करीब से गुज़र जाती हैं कि अचम्भा-सा हो जाता है।  दक्षिण पूरी में अब मंदिर पहले के मुकाबले बहुत हो गए हैं जो टाइम टू टाइम जागरण व भजन-कीर्तन दस्तक देते हैं। सुबह और शाम कुछ तो वक़्त मंदिर की घंटी इस सफ़र की रफ़्तार को कुछ सेकेंड के लिए अपने से बाँध लेती है।     


 मैं रोजाना इन आवाज़ों से कटती हुई इस सड़क से जल्दी से जल्दी निकल जाती हूँ जो मुझे अपने शोर से भीड़ का एहसास देती है।  आज सड़क खाली है फिर भी उन सबकी गूँज की कम्पन मेरे शरीर को छू रही हो जैसे और मुझे इधर-उधर आवाज़ तलाशने पर मजबूर कर रही हो।  लगातार आवाज़ों के बीच से गुज़रते रहना इस एहसास में धकेल देता है कि उन आवाज़ों क़ी छाप दिमाग में बैठ जाती है।