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Saturday, July 7, 2012

ख़बर


आज शाम को हमारी गली का माहौल कुछ बदला-सा है। समां तो रोज की तरह बंधा था। पर आज का नज़ारा कुछ और ही था। दो-चार या फिर इनसे ज़्यादा के ग्रुप में बैठे लोगों के जुबान पर एक ही बातचीत थी। मैं भी अपने जीने में बैठी थी। सामने घर के जीने पर बैठी औरत बात कर रही थी। मैं कान लगा कर सुन रही रही थी। मुझे सुनाई दिया- "देखो आजकल का जमाना कैसा हो गया है? बेटियाँ पैदा करना तो मानो अपने घर में दहेज जैसे शब्द से लड़ना। माँ–बाप अपनी बेटी को शादी में उसकी सुख-सुविधा के लिए समान देते हैं जिसे लड़के के घर में दहेज के नाम से जाना जाता है। पर आज कल ये रिवाज़ जैसे वक़्त के साथ रफ़्तार से बढ़ रहा है।

5 नंबर के थाने में एक लड़की की लाश को सड़क के बीचो-बीच लेटा रखा था। उसकी शादी को पाँच दिन बचे थे। लड़का लड़की की पसंद से था। लेकिन फिर भी माँ-बाप के सब कुछ देने के बाद भी लड़के वाले ने 8 लाख रुपए और एक सेंटरों कार भी मांगी थी। लड़की के माँ-बाप ने उतना किया जितना उनके बस में था। मगर जब उन्होने ये मांग सुनी तो मानो उनकी गरीबी पर तमाचा-सा लग गया हो। ये सुनकर लड़की की खुशियों पर पानी फिर गया और शादी के पाँच दिन ही बचे थे लड़की और लड़की के घर वाले कर भी क्या सकते थे। लड़की ने आवेश में आकार खुदखुशी कर ली और एक चिट्ठी भी लिखी।

चिट्ठी में लिखा था-

बहनों ये लेन-देन बंद करो। मैं तो जा रही हूँ। लेकिन मेरे जैसा हादसा तुम्हारे साथ न हो। मेरी ख़्वाहिश है की मेरा अंतिम-संस्कार उसी लड़के के हाथ से करवाना जिससे मेरी शादी होने वाली थी।"

ये खबर सुनकर गली में अलग-अलग अफ़वाहें फैल रही थी। सभी का इस खबर को देखने का नज़रिया अलग-अलग था। 5 नंबर के थाने के पास एक लड़की की लाश पे सफ़ेद चादर की जगह उसकी सगाई की चुन्नी उसके पूरे शरीर पर लिपटी थी और उसके चारों तरफ पुलिस वाले खड़े थे। उस लड़की को देखने वालों की भीड़ भी इकट्ठी हो गई। सभी के चेहरों पर उदासी छाई हुई थी। गली में अलग-अलग बातें सुनने में आ रही थी। कोई कह रहा था- "लड़की ने आत्महत्या क्यों की? इससे अच्छा तो शादी ही नहीं करती।" वैसे तो पुलिस वालों ने लड़की वालों और लड़के वालों से काफी पूछताछ की। लेकिन लड़की ने चिट्ठी में अपने मरने की ज़िम्मेदारी अपने ही उपर ले ली थी।
जितने मुँह उतनी बातें थी। चलते फिरते लोगों के साथ ये ख़बर भी फैल रही थी। लेकिन फिर भी उम्र के हिसाब से उस ख़बर में लोग अपने अनुभव से बाते शुरु होती। गली की औरतों में अलग, आदमियों में अलग और लड़कों में अलग बातें होती है। 
 
एक ख़बर किस तरह के आकार को बनाने की कोशिश करती है?

तराशने की उमीद को लेकर...

कई दिनों दिमाग में चलता रहा मैं कैसा लिखती हूँ? क्यों लिखती हूँ? क्या कोई मुझे पढ़ेगा? अपनी तरफ हर आने वाले सवाल से खुद को इतना घेर लेने के बाद जो लिखा होता था उसे खुद ही अपने हाथों से खो दिया करती थी। न जाने कितनी ही कहानियाँ मैं खो चुकी हूँ। खुद को सिमटता हुआ महसूस करने में लगी रही और आज उसी खालीपन में फिर से शब्द तराशने की उमीद को लेकर निकल चली हूँ।