कई दिनों दिमाग में चलता रहा मैं कैसा लिखती हूँ? क्यों लिखती हूँ? क्या
कोई मुझे पढ़ेगा? अपनी तरफ हर आने वाले सवाल से खुद को इतना घेर लेने के बाद
जो लिखा होता था उसे खुद ही अपने हाथों से खो दिया करती थी। न जाने कितनी
ही कहानियाँ मैं खो चुकी हूँ। खुद को सिमटता हुआ महसूस करने में लगी रही और
आज उसी खालीपन में फिर से शब्द तराशने की उमीद को लेकर निकल चली हूँ।
likho...aur likho...:-)....we are born to express..not to impress...
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