औरत की पाकीज़गी का ताल्लुक
तो मुझे इस तरह नज़र आता है।
कि आजकल पाकीज़गी भी बस
एक नाम मात्र लफ्ज़ नजर आता है।
समाज ने कभी औरत के मन की
अवस्था से उसे नहीं जानना चाहा
मुहब्बत और वफ़ा के नाम को
हमेशा उसके तन से जोड़ना चाहा।
न दे सकुंगी मैं जवाब जो बच्चा कोई
मुझसे पूछ ले क्या होता हैं बलात्कार?
क्या चल रही बहस, इस शहर में?
प्रश्न से पहले खुद को हटा लेने को हूँ मैं तैयार।
उस सवाल का ख्याल मेरे मन को कचोटता है
कैसी होती है उस आदमी की मानसिकता
जो बचपन में माँ के दूध को रोता है
बढ़प्पन में वह औरत को नहीं सिर्फ शरीर सोचता है।
मैं चुपचाप ख़ामोश-सी खड़ी ये तमाशा
रोज़ ही अख़बारों और चेनलों पर देखा करती हूँ
किचकिचाती हुई आवाज़ों को रोज़ ही
मैं अपने हाथों तले कानों में भींचा करती हूँ।
यूँ तो अतीत से बेहतर ही अब
इस समाज का नज़रिया होना था
तो फिर क्यों आज भी एक इंसान (औरत ) को
ये समाज किसी और के नज़रिये से तोलना था।