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Wednesday, November 19, 2014

दिल्ली दर बदर

कदम दर कदम बढ़ते जा रहे थे और नज़र इधर से उधर  कभी नीचे तो कभी.… कितना बदला हुआ लगता  शाम का वक़्त यहाँ सड़क के  किनारों पर धुंआ -धुंआ बिखरा, उढ़ता हुआ .… घरों के  बाहर  सबके चूल्हों पर रोटियां सिक  रही हैं।

वहीं मुँडेरियों पर खेलते बच्चों के हाथों में उनकी माँ रोटियां थमाए उन्हें कपडे से भी ढक रही हैं ठण्ड की ओस से भीगे कपड़ों में वो नन्हे  उसे छोड़ भागते हैं।  इस ठण्ड से बेखबर से  बच्चे इस ठण्ड के मौसम को भी गर्मी  दे रहे हैं। …

 बगल से ही गुजरती इस सड़क पर रेड-लाईट  होते ही अपना हुनर प्रस्तुत करना  शुरू कर देते हैं। नज़र ठहर सी ही है इस सड़क से गुज़रते हुए।

आगे जाते हुए और उनकी नज़रों से नज़र मिलते होठों के छोरों से निकल गया.…कि बन गया खाना ?
अपनी फुकनी मुंह के आगे से हटाते हुए और मुस्कराहट बिखराकर गीली आँखों को भींचते हुए  कहा , हाँ बना रहे हैं दिहाड़ी पर निकलना है न।  दिन में तो  बच्चा कर खाते है। यूँ दो टूक बाते कर उस सड़क से गुज़रना होता है और हर दिन में एक डर भी सीने से गुज़रता है। इन नन्हों का यूँ बेफिक्री से सड़क के बीच उतर जाना।


Tuesday, March 18, 2014

होली

क्या खूब थी
इस बार की होली
दो दिन पहले से ही
माँ ने लगा दी होड़
गुजियों और पकोड़ों की
मेरे घर की तो
लगता है ये रीत है पुरानी
 दही बड़े और पकोड़ों की
मांग ही है की जाती
मैं क्या बढ़ी हुई
अब मुझे भी माँ
इन सब कामो में है लगा लेती
कहती है तू अब सीख ले
अपने घर जाकर
तुझे भी तो यह सब करना है
सास, ससुर देवर, जेठ
और ननद का मन हरना है
मैं झुंझलाकर कहती
 चुप हो जाओ मम्मी
लो थोडा रंग लगा लो
आज ही खेलो
तुम मेरे संग होली
वो चुप होकर
गुजिया और मठियों 
हो गयीं व्यस्त
खूब थकाया गुजियों ने
होली की सुबह
जल्दी से उठकर
रंग लगाया मम्मी को,
रंग लगाया ताई को, ताऊ को,
और अपने भाइयों को
और हो गयी मैं
कमरे में बंद
जाने फिर आँख लगी
लोग आये भी
और चले गए शायद
जब आँख खुली बाहर सब
ठहाके थे मार रहे
मामा मामी उनके बच्चे
और नानी देख मुझे
खींच लिया कमरे से बाहर
मेरे पांव छूकर मामा-मामी
बोले खेलेंगे अब हम होली
मैं नानी की बांहों में
छुपाकर खुद को 
कहती बस गुलाल लगा लो
मामी रंग पानी में भर
दिया उंडेल मेरे ऊपर
बच्चों ने रंगा गुलाल से
मामा ने टीका लगा
होली पर आशीर्वाद दिया
खूब नचाया नानी को
और बच्चों ने मुझको
दूर हुई थकावट मेरी
मैं होली नानी संग खेली
क्या खूब थी मेरी
इस बार की होली.

Thursday, March 6, 2014

औरत


औरत की पाकीज़गी का ताल्लुक
तो मुझे इस तरह नज़र आता है।
कि आजकल पाकीज़गी भी बस
एक नाम मात्र लफ्ज़ नजर आता है।

समाज ने कभी औरत के मन की
अवस्था से उसे नहीं जानना चाहा
मुहब्बत और वफ़ा के नाम को
हमेशा उसके तन से जोड़ना चाहा।

न दे सकुंगी मैं जवाब जो बच्चा कोई
मुझसे पूछ ले क्या होता हैं बलात्कार?
क्या चल रही बहस, इस शहर में?
प्रश्न से पहले खुद को हटा लेने को हूँ मैं तैयार।

उस सवाल का ख्याल मेरे मन को कचोटता है
कैसी होती है उस आदमी की  मानसिकता
जो बचपन में माँ के दूध को रोता है
बढ़प्पन में वह औरत को नहीं सिर्फ शरीर सोचता है।

मैं चुपचाप ख़ामोश-सी खड़ी ये तमाशा
रोज़ ही अख़बारों और चेनलों पर देखा करती हूँ
किचकिचाती हुई आवाज़ों को रोज़ ही
मैं अपने हाथों तले कानों में भींचा करती हूँ।

यूँ तो अतीत से बेहतर ही अब
इस समाज का नज़रिया होना था
तो फिर क्यों आज भी एक इंसान (औरत ) को
ये समाज किसी और के नज़रिये से तोलना था।

Wednesday, March 5, 2014

मेरी दिल्ली

चटाक… चटाक… सबकी नज़रे एक साथ घूमीं शायद। बस स्टेंड पर रेड लाइट के आगे से पीटते हुए वह औरत उस बच्ची को घसीटती हुई थप्पड़ लगाये जा रही थी।  सबने देखा तो मगर कुछ कहा नहीं।  मैंने भी कुछ नहीं कहा।  हाँ उन तमाचों को महसूस तो किया मगर अपने आप को अपने दुपट्टे में ही कसे रखा।  मैं क्या कहूं वह उसकी माँ है।  जो चाहे कर सकती हैं मैं कौन होती हूँ उन्हें टोक देने वाली।  इस सड़क से गुज़रते मैं तो रोज़ ही इन्हें देखती हूँ। फिर इस बच्ची का खेल भी तो सब देखते ही है।  माँ ढ़ोल पर दो डंडी घसीटती है. . . उससे निकलने वाली धुन पर ये बच्ची अपना करतब दिखती है।  अपने लचीले बदन को बड़ी आसानी से घुमाकर जाने कितने ही तरह के व्यायाम इस रेड लाइट पर कर गुज़रती है।  रामदेव बाबा भी चाहे तो इससे कुछ सीख ले।  मगर फिर भी ये हुनर दो कौड़ी का है। लोग कहां खुश होकर देते है।  वह तो ज़िल्लत भरी भीख़ थमा बैठते है या खड़े-खड़े हुड़की सी लेते रहते है। अपने घर के बच्चों में ममता उडेलते है तो इनपर क्यों झिड़कते हैं।  अपने घर के बच्चों संग तुतलाते हैं और इन संग वो भिड़ जाते हैं।  अपने बच्चों का सुख वह चाहते है और ये नादान माँ संग ही कमाते हैं। बस के न आने तक नजर उसी बच्ची के चेहरे पर थी।  जो माँ के तमाचों से लाल आसुंओ में भीगा था।  न चाहते हुए भी न जाने क्यों उसकी माँ से बात करने की हिम्मत कर ही ली।  दो टूक में अपनी बात कही,  "आज अगर मन नहीं उसका तो रहने दिया होता हाथ क्यों उठा दिया?"  वह मेरे दुपट्टे में बंद चेहरे को देखना चाहती थी पर मैंने दुपट्टा नहीं हटाया। वह अपने गोद के बच्चे को संभालती हुयी मेरी आँखों को घूरती रही। मैंने उस बच्ची को एक बार फिर देखा जो अपनी माँ से दूर जाकर खड़ी थी।  पता नहीं इन्हें कोई देखता क्यों नहीं, या ये लोग ही नहीं चाहते ? सड़को पर ही इनका बसेरा क्यों ? रेड लाइट पर कड़वे बोल सुनकर लोगों की नाराज़गी देखकर इनकी मानसिकता पर क्या असर पड़ता होगा? वह अपना अगला दिन कैसे सोचता होगा सड़क पर फिर से उतरने के लिए।  कई सवाल लेकर मैं अपनी बस का इंतजार करती रही और भीड़ से लदी बस में चढ़ी और अपने क़दमों को जगह देने और खुद के लिए खड़े रह पाने में जुट गई। 

Thursday, February 13, 2014

"ऐसे थे मेरे पापा "

जब भी अकेली हो जाती हूँ
मैं उनका स्पर्श पा लेती हूँ।
कुछ और न बात हो कभी तो,
मैं उनकी यादें दोहराती हूँ।

मेरे नन्हें हाथों को थामें चलना सिखाते ,
कभी गिरने से बचाते,
तो कभी गोद में लेकर
रिश्तों से परिचय कराते थे मेरे पापा।

कभी मेरे हमसफ़र बनकर
वो मेरे साथ मुस्कुराते।
कभी हमराज़ बनकर
मेरे राज़ छुपाते थे, मेरे पापा।

जब मां की डांट-डपट से भी
मैं कोई काम न करती
तब अपने स्नेह और दुलार से
काम के लिए मना लेते थे, मेरे पापा।

खेल में पढ़ने की भूल को समझ
नाराज़ होते थे जब कभी
तो खुद पढ़ने बैठ कर
मुझे पाठ याद दिलाते थे, मेरे पापा।

दिन भर की थकान के बावजूद
वो मेरे हमसाथी बनकर
मेरी उलझनों को सुलझाते
मेरे जवाबों से मुस्कुराते थे, मेरे पापा।

स्कूल के कार्यक्रम पर
जो माँ ने मुझे पहना दी थी साड़ी
तो अपने आंसू छुपाकर
अपनी चिंता को जताते थे, मेरे पापा।

देर रात अकेले बैठ कर
जब लिखा करते थे डायरी
तब मेरी मेरे पूछने की हठ पर
मुझे अपने आप से रु-बी-रु करते थे, मेरे पापा।

यूँ तो मैंने कभी ज्य़ादा चाहा ही नहीं
पर जब कभी ज़ेब से ज्य़ादा मांगा
तब तब उन्हें कोशिश करते देखा
या कभी देरी पर शर्मिन्दा होते थे, मेरे पापा।

होते जो आज तो
मैं उनकी फिक्र का हिस्सा होती
मुझे उस फिक्र से परे,मुस्कराहट ही दे रहे होते
जैसे बचपन में देते थे,  मेरे पापा।

Tuesday, January 7, 2014

Stop Acid Attacks


उम्र ही क्या थी मेरी
जब पहली बार पल्लू में माँ के
मैं, छुप छुप जाया करती थी।
लेकर दुपट्टा उनका 
उनकी तरह उन्हें दोहराती थी।

मुझे इतराते देख मेरी माँ
भर अपनी बांहो में मुझको    वो ज़ोर-ज़ोर से हंसती और चहकती थी।

लिए दुपट्टा मैं  इठलाती
सखियों संग घर-घर खेला करती थी।
कभी अम्मा, कभी चाची, कभी भाभी,
कभी मैं उनकी मम्मी हो जाया करती थी। 

छीन दुपट्टा अपनी माँ से
मैं दूर-दूर भागा करती थी
बड़ा मज़ा था इस खेल में
मैं कुछ से कुछ हो जाया करती थी।

साल गुजरते उम्र के बढ़ते
अब दौर दुपट्टे का भी आया।
अब माँ खुद से खरीद कर
मेरे सीने रख मुझे सवांरती है।

कहती बेटा लड़की तू है
ढकी-ढकी ही भाती है।
सिर  उठाकर, कंधे झुकाकर
वो मुझको चलना सिखाती है।

खुद को आईने में चलता देख
मैं माँ की बात समझी थी।
कई तरह ढंग दुपट्टे को संग अपनाकर
अब खुद को सवांरा करती हूँ।

हाय, एक दिन टीवी पर देख खबर
मेरी माँ भी हुयी रुआंसी
रंग दुपट्टे का कोई भी
उस लड़की को न सवांर पायेगा।

देख चेहरा आईने में अपना
वो पल-पल तेज़ाब को सहती होगी।
क्या वो अब उस दुपट्टे को ले
खुद को सवारती होगी?

काश उन तेज़ाब डालने वालो ने भी
माँ की ममता पायी होती।
सीख़ कोई उन कमज़ोरों को
उनकी माँ ने भी सिखाई होती। 

Monday, January 6, 2014

मैं और मेरा मोहल्ला

सर्द मौसम में बारिश का हो जाना कदमों को घर में ही रोकता है। फिर आज ठण्ड का एहसास भीगा-सा भी है। गली में सब कुछ जैसे बटोरा जा चुका है गली चौड़ी और फैली-सी दिखती है।  आवाजें दबी-दबी रहती है। ऊपर से ये बेरहम बारिश जो सुबह से मुंह खोले बरस रही थी।  हवा में नमी और सड़को पर कीच। ये अंदाज़ था मौसम के चलते। लेकिन जब कानों ने खुद को आज़ाद पाया तो मेरे कदमों ने भी बाहर निकलने की ठान ली।  सर्द मौसम ने हाथों को बग़ल से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं दी।  मैं सड़क पर बेपरवाह-सी उतर आई हूँ।  मैं अक्सर कुछ आवाज़ों तले हमेशा अपने क़दमों को अलग-अलग रास्तों पर  लेती हूँ। मगर बारिश ने सड़क को खली और शांत सा कर दिया है। इसलिए हरेक आवाज़ तेज़ और तीखी-सी होती है।  सो जितनी आज़ादी मेरे कानों ने महसूस की उतनी ही आज़ादी मेरे क़दमों ने बटोर ली।  मेरे क़दम रफ़्तार नहीं पकड़ रहे थे बल्कि शांति से अपना सफ़र तय कर रहे थे। 

यूँ तो ये गलियां, ये सड़के , ये नुक्कड़ मेरे लिए नए नहीं है लेकिन बाकि दिनों में, मैं इनसे एक अजनबी-सा रिश्ता बनाकर चलती हूँ। मेरा बचपन इन आवाज़ों को अपने में सोखता शामिल  करता हुआ आगे बढ़ा है कि अब ये आवाज़ें आती भी हैं तो मुझसे टकराकर वापिस चली जाती है।  मुझे पता भी नहीं चलता कि मैंने कुछ अनसुना भी किया। 

अपने बचपन से अबतक आवाज़ों को बदलते सुना है। दुकाने ज्य़ादा हो गई हैं तो वहाँ गुट भी बन जाते हैं जो कि अपने ठहाकों की गूंज से सबके ध्यान को खींच लेते हैं कुछ सड़क से गुजरते दुकान वाले से दुआ-सलाम लेते गुजरते हुए उसे अपने रूटीन में शामिल कर चुके है।  बाइक के हॉर्न अब ज्यादा सुनने को मिलते हैं।  कभी तो डरा ही देती हैं तो कभी इतने करीब से गुज़र जाती हैं कि अचम्भा-सा हो जाता है।  दक्षिण पूरी में अब मंदिर पहले के मुकाबले बहुत हो गए हैं जो टाइम टू टाइम जागरण व भजन-कीर्तन दस्तक देते हैं। सुबह और शाम कुछ तो वक़्त मंदिर की घंटी इस सफ़र की रफ़्तार को कुछ सेकेंड के लिए अपने से बाँध लेती है।     


 मैं रोजाना इन आवाज़ों से कटती हुई इस सड़क से जल्दी से जल्दी निकल जाती हूँ जो मुझे अपने शोर से भीड़ का एहसास देती है।  आज सड़क खाली है फिर भी उन सबकी गूँज की कम्पन मेरे शरीर को छू रही हो जैसे और मुझे इधर-उधर आवाज़ तलाशने पर मजबूर कर रही हो।  लगातार आवाज़ों के बीच से गुज़रते रहना इस एहसास में धकेल देता है कि उन आवाज़ों क़ी छाप दिमाग में बैठ जाती है।